Tuesday, April 10, 2012

"मौसम"

वो अमावस की रातों में सियाह हुयी 
हरे दरख्तों की नर्म  टहनियां 
वो फिजां की आंधी में दफ्न  हुयी
फूलों की कोमल पंखुड़ियाँ
जो बचे उनको उम्मीद सुबह की 
रफ्ता रफ्ता गुज़ारो रातें 
अलाव की आग भी अब ठंडी हो चली है 
और दोहराने लगे हैं लब वो पुरानी बातें
सूख गयी हैं कपास की वो कोमल कलियाँ 
के हवाओं नें दस्तक  दी है दर पे 
कुछ उमड़े  हैं बादल इस तरफ 
लगा की  ज़मी की प्यास बुझेगी शायद 
वो गेहूं में बालियाँ आएँगी फिर से
सरसों वो सोने का सेहरा सजेगा सिर पे
 मौसम की भी फितरत इंसानी हो चली है 
यूँ हर वक़्त बदलना इसकी निशानी हो चली है 

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