Monday, April 9, 2012

"सबवे"

जनपथ की सड़क पे रीगल के पास
मैं, एक बोहोत पुराना "सबवे"
खाबों को देखा है बनते बिगडते
शीशों की इमारतें और लम्बी चौड़ी सड़कें 
कई देखे थे चेहरे जो अन्जाने
अब लगते हैं जाने पहचाने 
कई ज़िंदगियाँ देखी हैं लाशों में बदलते 
सिसकते, तड़पते, चिल्लाते और आवाज़ करते 
झाँका है जिस्मों को टैटुओं के बीच 
कभी ढूंढे हैं लत्ते उन्ही जिस्मों के बीच 
वक़्त के सहे हैं थपेड़े हज़ार 
अनगिनत सवाल लबों पे सवार 
पूंछता हूँ, कोई तो बताये मुझे 
ढूढ़ता हूँ, कोई तो दिखाए मुझे
ये दिल्ली का दिल कहाँ खो गया है 
वो जिंदा था, जो इन्सां कहाँ सो गया है...

No comments:

Post a Comment