खुशियाँ तो मुद्दतें हो गयीं, जो देखीं थी आख़िरी मर्तबा
ख़्वाब भी अपने अब तो, सुनते हैं गैरों की ज़बां
बोझिल हैं आलम, हर लम्हा, हर समाँ
ऐ वक़्त ले चल मुझे उस पहर में
जून की को तपती दोपहर में
नानी के घर की छत पे घरोंदा बनाना
बारिश के पानी में वो कागज़ की कश्ती बहाना
नन्हे से हाथों से वो जिंदगी बोना
माँ के हाथों की मार, और मेरा वो रोना
दोस्तों के साथ खेली वो आँख मिचोली
वो भोली शरारतें और वो अठखेली
अब तो हसरत है एक लम्हा ही गुजरने पाए यूँ
उस एक लम्हे में, मैं सैकड़ों जिंदगी जी लूँ.....