Saturday, March 31, 2012

एक पुरानी नज़्म...

हाथों में एक अजब सी जुंबिश थी
ऐसा लगा मानो छुआ किसी ने 
चोंका था मैं जब खोली थी मुट्ठी 
ओस की बूंदें और थोड़ी सी मिट्टी

पार्क की सीट पे पीठ टिका 
घंटों देखा करता था, उगते 
और ढलते सूरज को और 
पूंछा करता था, कुछ आग मिलेगी क्या मुझको 
एक दिया जलना है खाबों का

चाँद जलाता था फिर खाबों को रात में आकर 
लम्बी, तन्हा, वीरान पर 
शोर शराबों की रातों में आकर 
वो पुरानी मैली यादों को खंगाल के 
एक बोहोत पुरानी नज़्म सुना जाता था आकर 

वो रात जाने और सुबह आने का वक़्त मुश्किल 
होता था गुज़ारना
उम्मीद की चादर अब छोटी पडने लगी थी 
और पैर निकलने लगे थे बहार उसके...